Saturday, September 6, 2025

छत्तीसगढ़ राज्य की रजत जयंती : 25 वर्षों की गौरव यात्रा

 छत्तीसगढ़ राज्य की रजत जयंती : 25 वर्षों की गौरव यात्रा


छत्तीसगढ़ भारत का 26वाँ राज्य है, जिसका गठन 1 नवम्बर 2000 को हुआ। “धान का कटोरा” कहलाने वाला यह राज्य अपनी स्थापना के बाद से अब तक विकास, संस्कृति और स्वाभिमान की दिशा में 25 वर्ष की गौरवमयी यात्रा पूरी कर चुका है। वर्ष 2025 में छत्तीसगढ़ अपनी रजत जयंती मना रहा है। यह अवसर हमें राज्य की उपलब्धियों, संघर्षों और भविष्य के संकल्पों को याद करने का प्रेरणादायी क्षण प्रदान करता है।


ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और स्वतंत्रता संग्राम में योगदान

छत्तीसगढ़ का प्राचीन नाम दक्षिण कोसल था। यह क्षेत्र न केवल सांस्कृतिक धरोहरों का केंद्र रहा बल्कि स्वतंत्रता संग्राम का भी गवाह बना। यहाँ के वीर सपूतों ने स्वतंत्रता की रक्षा हेतु अपने प्राणों की आहुति दी।

अमर शहीद वीर नारायण सिंह को छत्तीसगढ़ का पहला स्वतंत्रता संग्राम सेनानी माना जाता है।

गुरु घासीदास ने सामाजिक समानता और सत्य के मार्ग पर चलने का संदेश दिया।

गुंडाधुर और बस्तर क्षेत्र के आदिवासियों ने अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह किया।

रानी दुर्गावती और रानी अवंति बाई लोधी जैसी वीरांगनाओं का भी यहाँ की धरती से गहरा संबंध रहा।

इन शहीदों और महान विभूतियों ने छत्तीसगढ़ की अस्मिता और स्वाभिमान को नई पहचान दी।


राजनीति और राज्य निर्माण का प्रयास

स्वतंत्रता के बाद लंबे समय तक छत्तीसगढ़ मध्यप्रदेश का हिस्सा रहा। क्षेत्रीय असमानताओं और विशेष पहचान की मांग ने अलग राज्य निर्माण की आवश्यकता को जन्म दिया। छत्तीसगढ़ राज्य की माँग को आगे बढ़ाने में छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण संगठनों, बुद्धिजीवियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और जनआंदोलनों का बड़ा योगदान रहा।

अंततः केंद्र सरकार और विभिन्न राजनीतिक दलों के प्रयासों से 2000 में छत्तीसगढ़ राज्य का गठन हुआ। पिछले 25 वर्षों में राज्य की राजनीति ने भी विकास को नई दिशा दी। चाहे कांग्रेस हो या भाजपा, दोनों दलों ने अपने-अपने कार्यकाल में शिक्षा, स्वास्थ्य, उद्योग और सामाजिक कल्याण की योजनाओं को आगे बढ़ाया।

भाजपा सरकार के दौरान नए जिले बनाए गए, अधोसंरचना में निवेश हुआ और कृषि को बढ़ावा दिया गया।

कांग्रेस सरकार ने किसानों के लिए कर्जमाफी, बिजली बिल हाफ योजना, स्वास्थ्य बीमा, नरवा-गरवा-घुरवा-बाड़ी जैसी योजनाएँ चलाईं।

इस तरह राजनीतिक नेतृत्व ने प्रदेश को विकास और कल्याण की ओर अग्रसर किया।


प्रदेश की प्रमुख उपलब्धियाँ (2000–2025)

पिछले 25 वर्षों में छत्तीसगढ़ ने कई महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ हासिल कीं—


🌾 कृषि और ग्रामीण विकास

धान उत्पादन में अग्रणी राज्य बना।

धान खरीदी व्यवस्था और समर्थन मूल्य योजना ने किसानों को लाभ दिया।

"नरवा-गरवा-घुरवा-बाड़ी" योजना से ग्रामीण अर्थव्यवस्था मजबूत हुई।


⚙️ उद्योग और ऊर्जा

कोरबा को “भारत का पावर हब” कहा जाता है।

भिलाई इस्पात संयंत्र और लौह अयस्क उत्पादन ने राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को बल दिया।

रायगढ़ और जांजगीर-चांपा में ऊर्जा आधारित उद्योगों का विकास हुआ।


📚 शिक्षा और स्वास्थ्य

आईआईटी, आईआईएम, एम्स, एनआईटी जैसे राष्ट्रीय संस्थान स्थापित हुए।

संजीवनी योजना और मुफ्त दवा योजना से स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार हुआ।

महिला और बालिकाओं के लिए शिक्षा अभियान चलाए गए।


🎭 संस्कृति और पर्यटन

बस्तर दशहरा और मड़ई महोत्सव को राष्ट्रीय पहचान मिली।

चित्रकोट जलप्रपात, सिरपुर, डोंगरगढ़ जैसे स्थल पर्यटन केंद्र बने।

लोककला, पंडवानी और आदिवासी नृत्यों को अंतरराष्ट्रीय ख्याति मिली।


भविष्य की चुनौतियाँ और संभावनाएँ

रजत जयंती का यह वर्ष केवल उपलब्धियों को गिनाने का नहीं, बल्कि आने वाले वर्षों के लिए संकल्प लेने का भी अवसर है।

पर्यावरण संरक्षण और खनिज दोहन के बीच संतुलन बनाना होगा।

ग्रामीण-शहरी असमानता और बेरोजगारी जैसी समस्याओं का समाधान आवश्यक है।

शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं को और मजबूत करना होगा।

पर्यटन और संस्कृति को बढ़ावा देकर राज्य को आत्मनिर्भर बनाया जा सकता है।


प्रेरणादायी संदेश

🌾 “धान का कटोरा, छत्तीसगढ़ हमारा।”

🔥 “25 साल का गौरव, उज्ज्वल भविष्य की ओर कदम।”

🌳 “हरियाली, खुशहाली और आत्मनिर्भरता – यही छत्तीसगढ़ की पहचान।”

🚩 “शहीदों की शहादत से सींचा, जनता की मेहनत से सींचा – यही है छत्तीसगढ़।”


निष्कर्ष

छत्तीसगढ़ की 25 वर्षों की यात्रा संघर्ष, विकास और गौरव की कहानी है। यह राज्य अपनी प्राकृतिक संपदा, सांस्कृतिक विविधता और मेहनतकश जनता के कारण अद्वितीय है। शहीदों के बलिदान और राजनीतिक नेतृत्व के प्रयासों से यह राज्य आज प्रगति की राह पर अग्रसर है। रजत जयंती हमें यह संदेश देती है कि हमें मिलकर छत्तीसगढ़ को एक समृद्ध, आत्मनिर्भर और आदर्श राज्य बनाना है।


Tuesday, August 12, 2025

 

डॉ. एस.आर. रंगनाथन – भारतीय पुस्तकालय विज्ञान के जनक 


पूरा नाम:  (Shiyali Ramamrita Ranganathan)

जन्म: 12 अगस्त 1892, शियाली (अब सियाली/तिरुवरूर ज़िला), तमिलनाडु, भारत

मृत्यु: 27 सितंबर 1972, बेंगलुरु, कर्नाटक, भारत

पेशेवर पहचान: पुस्तकालय विज्ञान के प्रणेता, गणितज्ञ, शिक्षक, लेखक

सम्मान: पद्मश्री (1957)


प्रारंभिक जीवन और शिक्षा


डॉ. रंगनाथन का जन्म 12 अगस्त 1892 को मद्रास प्रेसीडेंसी (वर्तमान तमिलनाडु) के छोटे से कस्बे शियाली में हुआ। उनके पिता का नाम रामामृतम् और माता का नाम श्रीरंगम्मा था। वे एक साधारण मध्यमवर्गीय ब्राह्मण परिवार से थे। बचपन से ही उनमें अध्ययन के प्रति गहरी रुचि और अनुशासनप्रियता थी।

उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा स्थानीय स्कूल से प्राप्त की और 1913 में मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज से गणित में स्नातक की डिग्री प्राप्त की। इसके बाद 1916 में उन्होंने एम.ए. (गणित) की उपाधि हासिल की। वे आगे चलकर गणित के प्राध्यापक भी बने।


शैक्षणिक और पेशेवर जीवन की शुरुआत


स्नातकोत्तर उपाधि के बाद उन्होंने विभिन्न कॉलेजों में गणित पढ़ाया, जैसे—


मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज


प्रेसिडेंसी कॉलेज, मद्रास


अमेरिकन कॉलेज, मदुरै



1924 में उनका जीवन मोड़ तब आया जब उन्हें मद्रास विश्वविद्यालय का पहला पूर्णकालिक पुस्तकालयाध्यक्ष नियुक्त किया गया। पुस्तकालय के काम से अपरिचित होने के बावजूद उन्होंने इस क्षेत्र को अपनाया और लंदन के स्कूल ऑफ लाइब्रेरी एंड इंफॉर्मेशन स्टडीज से प्रशिक्षण लिया।



मुख्य योगदान


1. पुस्तकालय विज्ञान के पाँच नियम (1931)


रंगनाथन ने 1931 में पुस्तकालय संचालन और उपयोगिता के लिए पाँच मूलभूत नियम दिए:


1. Books are for use – पुस्तकें उपयोग के लिए हैं।



2. Every reader his/her book – प्रत्येक पाठक को उसकी पुस्तक मिले।



3. Every book its reader – प्रत्येक पुस्तक के लिए उसका पाठक हो।



4. Save the time of the reader – पाठक का समय बचाएँ।



5. The library is a growing organism – पुस्तकालय एक जीवित संगठन है।



ये नियम आज भी विश्वभर के पुस्तकालय विज्ञान के मूल सिद्धांत माने जाते हैं।


2. कोलन वर्गीकरण पद्धति (Colon Classification)


उन्होंने 1933 में Colon Classification System विकसित की, जिसमें विषयों को मुख्य वर्ग, उपवर्ग, और विशेषताओं के आधार पर कॉलन (:) का उपयोग करके वर्गीकृत किया जाता है। यह भारत सहित कई देशों में अपनाई गई।


3. संस्थागत और शैक्षिक योगदान


भारत में पुस्तकालय विज्ञान की औपचारिक शिक्षा की शुरुआत की।


मद्रास विश्वविद्यालय में पहला पुस्तकालय विज्ञान विभाग स्थापित किया।


भारतीय पुस्तकालय संघ (Indian Library Association) की स्थापना में सहयोग किया।


दिल्ली विश्वविद्यालय में डॉक्टरेट स्तर तक पुस्तकालय विज्ञान शिक्षा का ढांचा तैयार किया।



4. प्रमुख पुस्तकें


The Five Laws of Library Science (1931)


Prolegomena to Library Classification (1937)


Library Administration (1935)


Classification and Communication (1951)


Documentation and Its Facets (1963)


सम्मान और पुरस्कार


1957 में भारत सरकार द्वारा पद्मश्री


अंतरराष्ट्रीय स्तर पर IFLA (International Federation of Library Associations) द्वारा सम्मानित


1960 में लाइब्रेरी एसोसिएशन, लंदन की ओर से मानद सदस्यता। 


निधन और विरासत


27 सितंबर 1972 को बेंगलुरु में उनका निधन हुआ। उनकी स्मृति में 12 अगस्त को राष्ट्रीय पुस्तकालय दिवस (National Librarian’s Day) के रूप में मनाया जाता है।

आज भी उनके सिद्धांत, नियम और वर्गीकरण पद्धति भारत तथा विश्व के अनेक देशों के पुस्तकालयों में लागू हैं।

Thursday, July 24, 2025

 

जब दुनिया कहती है कि उम्र बढ़ने पर कदम धीमे हो जाते हैं, तब मीनाक्षी अम्मा इस सोच को अपने साहस और संकल्प से झुठला देती हैं। 75 साल की उम्र में भी वो भारत की प्राचीन मार्शल आर्ट कलारीपयट्टू की सबसे वरिष्ठ और प्रेरणादायक गुरू हैं।


सात साल की उम्र में अपने पिता के साथ पहली बार जब उन्होंने कलारी देखा, तभी से यह कला उनके जीवन का हिस्सा बन गई। उस दौर में लड़कियों को इसे सीखने की अनुमति नहीं थी, लेकिन मीनाक्षी अम्मा ने परंपराओं को तोड़ते हुए न केवल खुद सीखा, बल्कि इसे आगे बढ़ाने का संकल्प भी लिया।


आज उनके गुरुकुल में 150 से अधिक छात्र, बिना किसी भेदभाव के इस प्राचीन विद्या को सीखते हैं — लड़के हों या लड़कियाँ। उनके लिए यह सिर्फ एक युद्ध कला नहीं, बल्कि आत्मनिर्भरता और आत्मविश्वास का मार्ग है।


शादी के बाद भी उन्होंने अभ्यास नहीं छोड़ा, भले ही समाज के डर से यह अभ्यास दरवाज़ों के पीछे करना पड़ा हो। उनके पति का सपना था कि यह विद्या हर जाति, लिंग और वर्ग तक पहुँचे — और मीनाक्षी अम्मा उसी सपने को साकार कर रही हैं।


आज, उन्हें 'पद्म श्री' से सम्मानित किया जा चुका है, लेकिन उनके लिए सबसे बड़ा सम्मान तब होता है, जब उनका हर शिष्य खुद को मजबूत और सक्षम महसूस करता है।


60 से अधिक प्रदर्शन, अटूट ऊर्जा और अडिग हौसला — मीनाक्षी अम्मा आज भी दिखा रही हैं कि सीमाएं तो सिर्फ सोच की होती हैं।

सलाम है मीनाक्षी अम्मा, आपके हौसले, समर्पण और प्रेरणा को। 🙏🌟

#मीनाक्षीअम्मा #कलारीपयट्टू #नारीशक्ति #PadmaShri

 

भारत के 25 प्राचीन विश्वविद्यालय

हमारे प्राचीन भारत के 25 प्राचीन विश्वविद्यालय... दुनिया भर से हजारों प्रोफेसर और लाखों छात्र यहा रहते थे और कई विज्ञानों और विषयों का अध्ययन और अध्यापन करते थे। यहाँ पर कुछ प्रमुख प्राचीन विश्वविद्यालयों की जानकारी दी जा रही है:


1.नालंदा विश्वविद्यालय


स्थान: बिहार

स्थापना: 5वीं शताब्दी ईस्वी

विशेषता: यह बौद्ध शिक्षा का प्रमुख केंद्र था और इसमें विभिन्न विज्ञान, दर्शन, और धर्म का अध्ययन किया जाता था। यहाँ पर 10,000 छात्र और 2,000 शिक्षक थे।


2.तक्षशिला विश्वविद्यालय


स्थान: पाकिस्तान

स्थापना: 6वीं शताब्दी ईसा पूर्व

विशेषता: यह भारत का सबसे प्राचीन विश्वविद्यालय माना जाता है। यहाँ पर चिकित्सा, कानून, कला, सैन्य विज्ञान आदि की शिक्षा दी जाती थी।


3.विक्रमशिला विश्वविद्यालय 


स्थान: बिहार

स्थापना: 8वीं शताब्दी ईस्वी

विशेषता: यह भी बौद्ध शिक्षा का प्रमुख केंद्र था।


4.ओदंतपुरी विश्वविद्यालय 


स्थान: बिहार

स्थापना: 8वीं शताब्दी ईस्वी

विशेषता: बौद्ध शिक्षा और साहित्य का प्रमुख केंद्र।


5.मिथिला विश्वविद्यालय 


स्थान: बिहार

विशेषता: न्यायशास्त्र और तंत्र की शिक्षा के लिए प्रसिद्ध।


6.वल्लभी विश्वविद्यालय


स्थान: गुजरात

स्थापना: 6वीं शताब्दी ईस्वी

विशेषता: यहां पर धर्म, कानून, और चिकित्सा की शिक्षा दी जाती थी।


7.श्रृंगेरी मठ 


स्थान: कर्नाटक

विशेषता: अद्वैत वेदांत का प्रमुख केंद्र।


8.कांचीपुरम विश्वविद्यालय 


स्थान: तमिलनाडु

विशेषता: यहाँ पर तमिल साहित्य और दर्शन का अध्ययन किया जाता था।


9.पुष्पगिरी विश्वविद्यालय 


स्थान: ओडिशा

विशेषता: यह बौद्ध और जैन शिक्षा का केंद्र था।


10. उज्जयिनी विश्वविद्यालय 


स्थान: मध्य प्रदेश

विशेषता: यहाँ पर ज्योतिष, खगोल विज्ञान, और गणित की शिक्षा दी जाती थी।


11.कृष्णापुर विश्वविद्यालय 


स्थान: पश्चिम बंगाल

विशेषता: विभिन्न विज्ञानों और संस्कृत की शिक्षा का केंद्र।


12.नेल्लोर विश्वविद्यालय


स्थान: आंध्र प्रदेश

विशेषता: यहां पर धर्म और तंत्र की शिक्षा दी जाती थी।


13.सोमपुरा विश्वविद्यालय


स्थान: बांग्लादेश

विशेषता: यह बौद्ध शिक्षा का प्रमुख केंद्र था।


14.अमरावती विश्वविद्यालय


स्थान: आंध्र प्रदेश

विशेषता: बौद्ध और जैन शिक्षा का केंद्र।


15.नागरजुनकोंडा विश्वविद्यालय 


स्थान: आंध्र प्रदेश

विशेषता: बौद्ध शिक्षा का प्रमुख केंद्र।


16.रत्नागिरी विश्वविद्यालय 


स्थान: ओडिशा

विशेषता: बौद्ध धर्म और तंत्र का केंद्र।


17.माल्कापुरम विश्वविद्यालय


स्थान: आंध्र प्रदेश

विशेषता: विभिन्न धर्मों और विज्ञानों की शिक्षा।


18.त्रिसूर विश्वविद्यालय 


स्थान: केरल

विशेषता: कला, साहित्य और ज्योतिष की शिक्षा।


19.विजयपुरा विश्वविद्यालय 


स्थान: कर्नाटक

विशेषता: धर्म, तंत्र, और ज्योतिष की शिक्षा।


20.कादयर विश्वविद्यालय 


स्थान: तमिलनाडु

विशेषता: तमिल साहित्य और कला का अध्ययन।


21.मयंकट विश्वविद्यालय 


स्थान: कर्नाटक

विशेषता: धर्म और तंत्र का प्रमुख केंद्र।


23.उडुपी मठ 


स्थान: कर्नाटक

विशेषता: अद्वैत वेदांत और धर्म की शिक्षा।


23.कण्णूर विश्वविद्यालय 


स्थान: केरल

विशेषता: साहित्य, कला और ज्योतिष की शिक्षा।


24.अन्नूरधपुर विश्वविद्यालय 


स्थान: श्रीलंका

विशेषता: बौद्ध धर्म और तंत्र का केंद्र।


25.कंथालूर शाला


स्थान: तमिलनाडु

विशेषता: विभिन्न विज्ञानों और तंत्र का प्रमुख केंद्र।

ये प्राचीन विश्वविद्यालय शिक्षा के उच्चतम मानकों के प्रतीक थे और यहाँ पर दुनिया भर से छात्र और शिक्षक ज्ञान प्राप्त करने और साझा करने के लिए आते थे। इन संस्थानों में विभिन्न विज्ञान, धर्म, कला, और तंत्र की शिक्षा दी जाती थी, जो भारत की समृद्ध सांस्कृतिक और बौद्धिक धरोहर का हिस्सा हैं।

Tuesday, July 22, 2025


भूमिका

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास उन महान क्रांतिकारियों के बलिदानों से भरा पड़ा है जिन्होंने अपनी जान की परवाह किए बिना देश को ब्रिटिश गुलामी से आज़ाद कराने के लिए संघर्ष किया। ऐसे ही महान क्रांतिकारियों में से एक थे पंडित चंद्रशेखर आज़ाद। वे स्वतंत्रता की वह ज्वाला थे, जिसने न केवल अंग्रेज़ी हुकूमत की नींव को हिलाया, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को देशभक्ति, साहस और आत्मबलिदान की प्रेरणा दी। आज़ाद का जीवन, विचार, और उनका बलिदान भारत के युवाओं के लिए एक आदर्श बन गया है।

प्रारंभिक जीवन

चंद्रशेखर आज़ाद का जन्म 23 जुलाई 1906 को मध्य प्रदेश के अलीराजपुर जिले के भाबरा गाँव में हुआ था। उनके पिता का नाम पंडित सीताराम तिवारी और माता का नाम जगरानी देवी था। वे एक साधारण लेकिन धार्मिक ब्राह्मण परिवार से थे। उनकी माता चाहती थीं कि उनका बेटा संस्कृत का विद्वान बने और इसी कारण उन्होंने चंद्रशेखर को बनारस भेजा ताकि वे वहाँ शिक्षा ग्रहण कर सकें।

बचपन से ही उनमें आत्मगौरव, साहस और अन्याय के विरुद्ध विद्रोह की भावना थी। जब वे मात्र 15 वर्ष के थे, तब महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन से प्रभावित होकर उसमें भाग लिया। उन्हें पहली बार गिरफ्तारी का सामना भी इसी आंदोलन के दौरान करना पड़ा। जब न्यायालय में मजिस्ट्रेट ने उनसे उनका नाम पूछा, तो उन्होंने बेझिझक उत्तर दिया—


 "नाम - आज़ाद,

पिता का नाम - स्वतंत्रता,

पता - जेल"

इस साहसी उत्तर से सभी चकित रह गए और तभी से उनका नाम "चंद्रशेखर आज़ाद" पड़ा।

क्रांतिकारी जीवन की शुरुआत

गांधी जी के असहयोग आंदोलन की अचानक वापसी से चंद्रशेखर जैसे कई युवाओं को गहरा धक्का लगा। वे अहिंसा के मार्ग से असंतुष्ट हो गए और देश की आज़ादी के लिए सशस्त्र संघर्ष की ओर मुड़ गए। इसी समय उनकी भेंट रामप्रसाद बिस्मिल और अन्य क्रांतिकारियों से हुई, जो हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (HRA) के सदस्य थे।

आज़ाद ने जल्द ही इस संगठन में सक्रिय भूमिका निभाई और बाद में इसे हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) नाम दिया गया। इस संगठन का उद्देश्य था:


 "ब्रिटिश साम्राज्य को समाप्त करके भारत में एक स्वतंत्र समाजवादी गणराज्य की स्थापना करना।"

प्रमुख क्रांतिकारी गतिविधियाँ

चंद्रशेखर आज़ाद की योजना, बहादुरी और नेतृत्व क्षमता के कारण उन्होंने कई क्रांतिकारी घटनाओं को अंजाम दिया। उनके कुछ प्रमुख योगदान निम्नलिखित हैं:


1. काकोरी कांड (1925)

यह घटना 9 अगस्त 1925 को घटी जब क्रांतिकारियों ने ब्रिटिश सरकार के खजाने को लूटने के लिए लखनऊ के पास काकोरी रेलवे स्टेशन पर एक ट्रेन रोककर सरकारी खजाना लूट लिया। यह कार्य HRA के माध्यम से किया गया जिसमें चंद्रशेखर आज़ाद की योजना और निगरानी प्रमुख रही।


2. सांडर्स हत्याकांड (1928)

जब ब्रिटिश पुलिस अधिकारी जॉन सांडर्स ने लाला लाजपत राय की मौत का कारण बना, तब चंद्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव ने सांडर्स को मारकर बदला लिया। इस कांड ने ब्रिटिश शासन की चूलें हिला दीं।


3. लाहौर बम कारखाना

आज़ाद ने लाहौर में गुप्त बम निर्माण केंद्र स्थापित किया, जहाँ देश के लिए हथियार बनाए जाते थे। उनकी तकनीकी समझ और गुप्त रणनीतियाँ संगठन की रीढ़ थीं।

चंद्रशेखर आज़ाद का व्यक्तित्व

आज़ाद का व्यक्तित्व अत्यंत प्रेरणादायक और अनुशासनयुक्त था। वे निडर, आत्मनिर्भर और तेजस्वी थे। उन्हें हथियारों का संचालन, गुप्त कार्यों की योजना बनाना और युवाओं को संगठित करना बहुत अच्छी तरह आता था। वे कठोर अनुशासन में विश्वास रखते थे और अपने संगठन के प्रति पूरी तरह समर्पित थे।

वे कहते थे:

"मैं आज़ाद हूँ, आज़ाद रहूँगा, और अंग्रेजों की गुलामी में कभी नहीं जिऊँगा!"

उन्होंने अपने संगठन के सदस्यों को यह शिक्षा दी कि वे कभी जीवित पकड़े न जाएँ। वे अंतिम साँस तक इसी आदर्श पर डटे रहे।

शहादत

27 फरवरी 1931 को ब्रिटिश पुलिस को सूचना मिली कि चंद्रशेखर आज़ाद इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क (अब चंद्रशेखर आज़ाद पार्क) में हैं। पुलिस ने उन्हें चारों ओर से घेर लिया। उन्होंने साहसपूर्वक मुकाबला किया और अकेले ही कई पुलिस वालों को घायल कर दिया। जब उनके पास अंतिम गोली बची, तो उन्होंने अपने आदर्श के अनुसार स्वयं को गोली मार ली ताकि वे अंग्रेजों के हाथ जीवित न लगें।

उनकी शहादत से पूरे देश में क्रांतिकारी आंदोलन को एक नई ऊर्जा मिली। वे अपने नाम "आज़ाद" को मरते दम तक सार्थक करते रहे।

चंद्रशेखर आज़ाद की विरासत

चंद्रशेखर आज़ाद केवल एक नाम नहीं बल्कि एक विचार हैं—स्वतंत्रता का, आत्मबलिदान का, और संघर्ष का। उनका बलिदान, अनुशासन और नेतृत्व आज भी युवाओं के लिए एक आदर्श है। भारत के कई हिस्सों में उनके नाम पर स्मारक, पार्क, स्कूल और संस्थान बने हैं। उनके द्वारा जलाए गए आज़ादी के दीप ने भगत सिंह, सुखदेव, अशफाक उल्ला खाँ जैसे असंख्य युवाओं को प्रेरित किया।

निष्कर्ष


चंद्रशेखर आज़ाद का जीवन एक युगांतकारी गाथा है। उन्होंने दिखा दिया कि एक अकेला व्यक्ति भी अपने साहस, विचार और संकल्प से इतिहास की दिशा बदल सकता है। वे न केवल एक क्रांतिकारी थे, बल्कि भारत माता के ऐसे अमर सपूत थे जिनकी शहादत हर भारतीय के हृदय में सम्मान के साथ गूंजती है।


आज जब हम स्वतंत्र भारत में साँस ले रहे हैं, तो यह स्वतंत्रता हमें चंद्रशेखर आज़ाद जैसे वीरों के कारण मिली है। हमें चाहिए कि हम उनके आदर्शों पर चलें और अपने कर्तव्यों के प्रति सजग रहें। आज़ाद के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि हम उनके सपनों के भारत का निर्माण करें—स्वतंत्र, समानता आधारित और आत्मनिर्भर।


 

Thursday, July 10, 2025

 गुरु पूर्णिमा: भारतीय संस्कृति में गुरु की महिमा का पर्व


प्रस्तावना


भारतीय संस्कृति में गुरुको ईश्वर से भी श्रेष्ठ स्थान प्राप्त है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि भारतीय सभ्यता की आत्मा ही गुरु-शिष्य परंपरा में निहित है। गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णुः, गुरुर्देवो महेश्वरःजैसे श्लोकों में गुरु को त्रिदेवों के समकक्ष मानकर उन्हें सर्वस्व समर्पण का भाव व्यक्त किया गया है। गुरु पूर्णिमा वह पावन अवसर है जब शिष्य अपने गुरु के प्रति श्रद्धा, आभार और भक्ति प्रकट करते हैं। यह दिन केवल परंपरागत पूजन का अवसर नहीं है, बल्कि यह जीवन की दिशा और उद्देश्य को स्पष्ट करने का अवसर भी है।

गुरु पूर्णिमा का ऐतिहासिक और आध्यात्मिक महत्व


गुरु पूर्णिमा आषाढ़ मास की पूर्णिमा तिथि को मनाई जाती है। इसे व्यास पूर्णिमा भी कहा जाता है क्योंकि इसी दिन महर्षि वेदव्यास का जन्म हुआ था, जिन्होंने वेदों का संकलन, महाभारत की रचना और पुराणों की व्याख्या की। उन्होंने ज्ञान को व्यवस्थित और सुलभ रूप दिया, जिससे संपूर्ण मानव जाति लाभान्वित हो सकी। अतः गुरु पूर्णिमा न केवल गुरुओं को श्रद्धांजलि देने का अवसर है, बल्कि ज्ञान की उस परंपरा को सम्मानित करने का पर्व भी है जिसने भारत को विश्वगुरुकी उपाधि दिलाई।

गुरु की परिभाषा और भूमिका


गुका अर्थ है अंधकार और रुका अर्थ है प्रकाश। अतः गुरु वह है जो अज्ञानरूपी अंधकार को हटाकर ज्ञानरूपी प्रकाश से जीवन को आलोकित करता है। गुरु केवल शैक्षणिक विषयों का ज्ञाता नहीं होता, बल्कि वह जीवनदर्शन, आचरण, नैतिकता और आत्मबोध का मार्गदर्शक होता है। वे केवल किताबी ज्ञान नहीं देते, बल्कि शिष्य के अंतर्मन को स्पर्श करते हुए उसे आत्मिक ऊँचाई तक पहुँचाते हैं।

गुरु-शिष्य परंपरा की भारतीय विशेषता


भारत में गुरु-शिष्य संबंध केवल औपचारिक या व्यावसायिक नहीं रहा, बल्कि यह पूर्णतः आत्मिक और भावनात्मक संबंध रहा है। प्राचीन गुरुकुलों में विद्यार्थी केवल विद्या नहीं, बल्कि जीवन जीने की कला, कर्तव्य, धर्म, सेवा, संयम और तपस्या की शिक्षा प्राप्त करते थे। गुरु शिष्य के व्यक्तित्व को संवारते, उसे आत्मनिर्भर बनाते और जीवन के प्रत्येक पड़ाव के लिए तैयार करते।

महाभारत में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता के माध्यम से जो उपदेश दिया, वह भी गुरु-शिष्य संवाद का उत्कृष्ट उदाहरण है। अर्जुन जैसे वीर योद्धा को भी जब मोह और संशय ने घेर लिया, तब गुरु रूप में श्रीकृष्ण ने उसे धर्म, कर्तव्य और आत्मा का ज्ञान देकर जीवन की दिशा बदल दी।

गुरु के प्रकार और उनके कार्यक्षेत्र


गुरु केवल आध्यात्मिक ही नहीं होते, वे जीवन के हर क्षेत्र में मार्गदर्शक हो सकते हैं। माता-पिता भी प्रथम गुरु होते हैं जो भाषा, संस्कार और जीवन की प्राथमिक शिक्षा देते हैं। विद्यालय के शिक्षक शैक्षणिक गुरु होते हैं, जो ज्ञान और करियर का मार्ग प्रशस्त करते हैं। योग गुरु, संगीत गुरु, नृत्य गुरु, विज्ञान के गुरु ये सभी व्यक्ति के विशिष्ट कौशल और जीवन की दिशा को आकार देने में सहायक होते हैं।

इसके अतिरिक्त आध्यात्मिक गुरु शिष्य के अंतर्मन को जाग्रत करते हैं, उसे आत्मा और परमात्मा के संबंध का बोध कराते हैं। ऐसे गुरु आत्मज्ञान की सीढ़ियाँ प्रदान करते हैं।

गुरु पूर्णिमा का समकालीन संदर्भ


आज के युग में शिक्षा का स्वरूप भले ही बदल गया हो, तकनीकी माध्यमों से ज्ञान प्राप्त करना संभव हो गया हो, परंतु गुरु की महत्ता आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। आज के समाज में जब युवा भ्रम, तनाव, प्रतिस्पर्धा और मूल्यों के क्षरण से जूझ रहे हैं, तब एक सच्चे गुरु की आवश्यकता और बढ़ जाती है। गुरु वह है जो केवल सूचनाएँ नहीं देता, बल्कि विवेक, संयम, धैर्य और आत्मविश्वास का विकास करता है।

गुरु पूर्णिमा के दिन विद्यालयों, आश्रमों और संस्थानों में गुरु पूजन, प्रवचन, भजन, सत्संग आदि का आयोजन होता है। यह दिन आत्मचिंतन, लक्ष्य पुनर्निधारण और जीवन की दिशा के पुनर्निर्धारण का पर्व बन जाता है। यह हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि हमने अपने जीवन में किनसे सीखा, कौन हमारे मार्गदर्शक रहे, और क्या हमने उस सीख को सही रूप में अपनाया।

भारतीय इतिहास में प्रसिद्ध गुरु


भारतवर्ष ऐसे महान गुरुओं की भूमि रही है जिन्होंने न केवल शिष्य, बल्कि पूरी मानवता को दिशा दी।

1.  महर्षि वशिष्ठराम के गुरु जिन्होंने उन्हें धर्म और राजनीति की शिक्षा दी।

2.  महर्षि सांदीपनिश्रीकृष्ण और बलराम के गुरु जिन्होंने उन्हें विभिन्न कलाओं में निपुण बनाया।

3.  चाणक्यजिन्होंने चंद्रगुप्त मौर्य को न केवल राजा बनाया, बल्कि प्रशासन, नीति और अर्थशास्त्र का ज्ञान देकर भारत की राजनीति की नींव रखी।

4.  शंकराचार्यजिन्होंने भारत को अद्वैत वेदांत का ज्ञान दिया और हिन्दू धर्म की चार पीठों की स्थापना की।

5.  स्वामी विवेकानंदजिन्होंने अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस से आत्मज्ञान प्राप्त कर संपूर्ण विश्व में भारत की आध्यात्मिक शक्ति का उद्घोष किया।

इन सभी गुरुओं ने यह सिखाया कि गुरु केवल ज्ञानदाता नहीं, बल्कि चरित्र निर्माता होते हैं। उनके पास केवल पुस्तकें नहीं, बल्कि जीवन के अनुभव, ध्यान और बोध की गहराई होती है।

गुरु के प्रति कर्तव्य और शिष्य का धर्म


गुरु शिष्य को आलोकित करते हैं, लेकिन शिष्य का भी यह कर्तव्य होता है कि वह श्रद्धा, विनम्रता और समर्पण भाव से सीखने को तत्पर रहे। शिष्य का संकल्प, उसकी लगन और गुरुकृपा ही उसे महान बनाती है।

शिष्य के लिए आवश्यक है

  1. वह गुरु के उपदेश को संदेह से नहीं, श्रद्धा से ग्रहण करे।
  2. वह केवल सुनने तक सीमित न रहे, बल्कि जीवन में उसका अभ्यास करे।
  3. वह अहंकार, आलस्य और अधैर्यता से बचे और संयमपूर्वक गुरु के मार्ग का अनुकरण करे।

आधुनिक युग में गुरु-शिष्य संबंध की चुनौती


आज शिक्षा एक व्यवसाय बनती जा रही है। शिक्षण संस्थान, शिक्षक और विद्यार्थी सभी पर प्रतिस्पर्धा, परीक्षा और करियर का दबाव हावी है। ऐसे में गुरु-शिष्य के बीच आत्मीयता, संवाद और प्रेरणा का संबंध कमजोर पड़ रहा है। डिजिटल युग में यूट्यूब, गूगल, और एआई जैसे माध्यम ज्ञान तो दे सकते हैं, परंतु जीवन का बोध और दिशा देने का कार्य केवल एक सजीव, अनुभवी और करुणामय गुरु ही कर सकता है।

अतः यह आवश्यक हो गया है कि हम शिक्षा को केवल डिग्री प्राप्ति का साधन न मानें, बल्कि जीवन के मूल्य, संवेदना, सह-अस्तित्व और आत्मविकास का मार्ग मानें। इसके लिए गुरु का सम्मान, उनके समय का मूल्य, और उनके उपदेशों की समझ अत्यंत आवश्यक है।

गुरु पूर्णिमा: एक आंतरिक उत्सव


गुरु पूर्णिमा केवल एक तिथि या पर्व नहीं है, यह एक आंतरिक जागरण का अवसर है। यह वह दिन है जब हम अपनी आत्मा के भीतर झाँकते हैं और उन सभी गुरुओं को स्मरण करते हैं जिन्होंने हमें जीवन में आगे बढ़ने की प्रेरणा दी। यह वह दिन है जब हम अपने लक्ष्य को पुनः स्मरण करते हैं, अपने आचरण की समीक्षा करते हैं, और भविष्य की दिशा निर्धारित करते हैं।

उपसंहार

गुरु पूर्णिमा भारतीय संस्कृति की आत्मा का उत्सव है। यह पर्व हमें यह स्मरण कराता है कि केवल तकनीकी ज्ञान से जीवन सफल नहीं होता, जब तक हमारे पास ऐसा कोई मार्गदर्शक न हो जो हमारे भीतर के अंधकार को दूर कर सके। चाहे वह शिक्षक हो, माता-पिता, आध्यात्मिक संत, या कोई जीवन का अनुभव देने वाला व्यक्ति गुरु के बिना जीवन अधूरा है।

इस गुरु पूर्णिमा पर हम सभी को यह संकल्प लेना चाहिए कि हम अपने जीवन में मिले गुरुओं के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करें, उनके दिखाए मार्ग का पालन करें और स्वयं भी दूसरों के लिए प्रेरणा और मार्गदर्शक बनने का प्रयास करें। यही इस पर्व की सच्ची सार्थकता है।

Wednesday, January 22, 2025

सुभाष चंद्र बोस की जीवनी

 

सुभाष चंद्र बोस की जीवनी


सुभाष चंद्र बोस, जिन्हें "नेताजी" के नाम से भी जाना जाता है, भारत के स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख नेता और अद्वितीय व्यक्तित्व थे। उनका जन्म 23 जनवरी 1897 को उड़ीसा के कटक शहर में हुआ था। उनके पिता, जानकीनाथ बोस, एक प्रतिष्ठित वकील थे, और उनकी माता, प्रभावती देवी, एक धर्मपरायण महिला थीं। सुभाष चंद्र बोस कुल 14 भाई-बहनों में से नौवें थे।


शिक्षा और प्रारंभिक जीवन


सुभाष चंद्र बोस बचपन से ही अत्यंत मेधावी और देशभक्त प्रवृत्ति के थे। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा कटक के रेवेंशॉ कॉलेजिएट स्कूल से प्राप्त की। 1913 में, उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्रेसीडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया और वहां से दर्शनशास्त्र में स्नातक की डिग्री प्राप्त की।


सुभाष चंद्र बोस के देशभक्ति के गुण उनकी शिक्षा के दौरान ही उजागर होने लगे थे। उन्होंने अंग्रेजी शासन के प्रति विरोध प्रकट करते हुए एक प्रोफेसर की आलोचना की, जिसके कारण उन्हें कॉलेज से निष्कासित कर दिया गया। इसके बाद उन्होंने स्कॉटिश चर्च कॉलेज में दाखिला लिया और अपनी पढ़ाई पूरी की।


सिविल सेवा और त्याग


सुभाष चंद्र बोस ने 1920 में भारतीय प्रशासनिक सेवा (आई.सी.एस) की परीक्षा पास की और चौथे स्थान पर रहे। लेकिन ब्रिटिश सरकार के अधीन काम करना उनकी देशभक्ति के लिए अस्वीकार्य था। 1921 में, महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन से प्रभावित होकर उन्होंने आई.सी.एस की नौकरी से इस्तीफा दे दिया और स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रूप से शामिल हो गए।


भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में योगदान


सुभाष चंद्र बोस भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़े और जल्द ही अपने तेजस्वी नेतृत्व से लोकप्रिय हो गए। 1938 और 1939 में उन्हें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया। हालांकि, गांधीजी और सुभाष चंद्र बोस के विचारों में मतभेद थे। गांधीजी अहिंसा के मार्ग पर विश्वास करते थे, जबकि सुभाष चंद्र बोस को लगता था कि स्वतंत्रता के लिए सशस्त्र संघर्ष अनिवार्य है।


आजाद हिंद फौज की स्थापना


अपने क्रांतिकारी विचारों के कारण ब्रिटिश सरकार ने सुभाष चंद्र बोस को कई बार गिरफ्तार किया। 1941 में वे नजरबंदी से बचकर जर्मनी चले गए और वहां से जापान पहुंचे। जापान में उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय सेना (आई.एन.ए) या आजाद हिंद फौज का गठन किया। इस फौज का उद्देश्य भारत को ब्रिटिश शासन से मुक्त कराना था।


सुभाष चंद्र बोस ने "तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा" का नारा दिया, जिसने भारतीयों के मन में देशभक्ति की भावना को और प्रबल कर दिया। उन्होंने अपनी फौज के साथ ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ संघर्ष किया और भारत के पूर्वी हिस्से में स्वतंत्रता के लिए लड़ाई लड़ी।


नेतृत्व और विचारधारा


सुभाष चंद्र बोस एक करिश्माई नेता थे, जिन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में क्रांतिकारी विचारधारा का संचार किया। वे गांधीजी के सिद्धांतों से अलग होकर अपने तरीकों से स्वतंत्रता प्राप्त करना चाहते थे। उन्होंने कई देशों से समर्थन प्राप्त किया और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता दिलाई।


मृत्यु और विवाद


सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु एक रहस्य बनी हुई है। 18 अगस्त 1945 को ताइवान में हुए एक विमान दुर्घटना में उनकी मृत्यु होने की खबर आई, लेकिन इस पर लंबे समय तक विवाद बना रहा। कई लोग मानते हैं कि उनकी मृत्यु विमान दुर्घटना में नहीं हुई थी, और वे गुप्त रूप से जीवन जीते रहे।


विरासत


सुभाष चंद्र बोस का योगदान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अद्वितीय है। उनके नेतृत्व, साहस और क्रांतिकारी विचारों ने भारतीयों को स्वतंत्रता के लिए एक नई दिशा दी। आज भी उनका जीवन और विचार प्रेरणा का स्रोत हैं।


उनका नारा "जय हिंद" आज भी भारतीय राष्ट्रीयता का प्रतीक है। उनकी स्मृति में हर साल 23 जनवरी को भारत में "पराक्रम दिवस" मनाया जाता है।


निष्कर्ष


सुभाष चंद्र बोस भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महानायक थे। उनका बलिदान, साहस और देशभक्ति आज भी हर भारतीय के दिल में जीवित है। उन्होंने अपने जीवन से यह संदेश दिया कि सच्चा देशभक्त वह है जो अपने देश के लिए अपने जीवन की हर सुख-सुविधा त्यागने के लिए तैयार हो।


Sunday, December 15, 2024

16 दिसंबर: विजय दिवस पर विशेष लेख



16 दिसंबर को हर साल भारत में विजय दिवस के रूप में मनाया जाता है। यह दिन भारतीय सेना की उस अद्वितीय वीरता और पराक्रम को समर्पित है, जिसने 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में निर्णायक जीत हासिल की। यह ऐतिहासिक दिन केवल भारत की सैन्य ताकत का प्रतीक नहीं है, बल्कि यह मानवता और न्याय की जीत का भी उत्सव है। इस दिन के साथ एक नए राष्ट्र बांग्लादेश का उदय और लाखों पीड़ितों की मुक्ति की स्मृति जुड़ी हुई है।


1971 का भारत-पाक युद्ध और विजय दिवस का महत्व


1971 का भारत-पाक युद्ध भारतीय इतिहास का एक स्वर्णिम अध्याय है। यह युद्ध पाकिस्तान में पूर्वी बंगाल (अब बांग्लादेश) के लोगों पर हो रहे अत्याचारों के खिलाफ लड़ा गया था। पाकिस्तान के सैन्य शासकों द्वारा बंगाली लोगों के साथ हो रहे अन्याय, मानवाधिकारों के उल्लंघन और दमन के कारण लाखों लोग भारत में शरण लेने के लिए मजबूर हुए।


पाकिस्तानी सेना ने पूर्वी पाकिस्तान में बड़े पैमाने पर नरसंहार किया, जिसे "ऑपरेशन सर्चलाइट" के नाम से जाना गया। इस नरसंहार में लाखों लोगों की जान गई और 1 करोड़ से अधिक शरणार्थी भारत में आ गए। इससे भारत को गंभीर आर्थिक और सामाजिक चुनौतियों का सामना करना पड़ा। इन परिस्थितियों ने भारत को मजबूर किया कि वह पूर्वी पाकिस्तान की जनता को स्वतंत्रता दिलाने में उनकी सहायता करे।


3 दिसंबर 1971 को पाकिस्तान ने पश्चिमी सीमा पर भारत के सैन्य ठिकानों पर हमला कर युद्ध की शुरुआत की। भारतीय सेना ने तत्परता से जवाब दिया और 13 दिनों के भीतर, 16 दिसंबर को पाकिस्तान की सेना को आत्मसमर्पण करने पर मजबूर कर दिया। ढाका में 93,000 पाकिस्तानी सैनिकों ने भारतीय सेना और मुक्ति बाहिनी (बांग्लादेश की स्वतंत्रता सेनाओं) के सामने आत्मसमर्पण किया। यह अब तक का सबसे बड़ा सैन्य आत्मसमर्पण था।


इस जीत ने पूर्वी पाकिस्तान को एक नया स्वतंत्र राष्ट्र बांग्लादेश बनने का मार्ग प्रशस्त किया। भारतीय सेना के इस पराक्रम के पीछे तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ, लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा, और कई अन्य सैन्य नेताओं का अद्वितीय नेतृत्व था।


विजय दिवस का महत्व


विजय दिवस केवल एक सैन्य जीत का प्रतीक नहीं है, बल्कि यह मानवीय मूल्यों और स्वतंत्रता की विजय का भी प्रतीक है। यह दिन भारतीय सशस्त्र बलों की वीरता और बलिदान को सम्मानित करने का अवसर है। इसके साथ ही यह दिन बांग्लादेश की स्वतंत्रता की स्मृति को भी संजोता है।


इस दिन देशभर में शहीदों को श्रद्धांजलि दी जाती है। खासतौर पर दिल्ली के इंडिया गेट और कोलकाता के फोर्ट विलियम में विशेष कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। पूर्व सैनिक, वर्तमान सैनिक, और नागरिक इस दिन को गर्व और सम्मान के साथ मनाते हैं।


निष्कर्ष


16 दिसंबर का विजय दिवस केवल एक ऐतिहासिक घटना का स्मरण नहीं है, बल्कि यह राष्ट्र की शक्ति, एकता, और न्याय के प्रति हमारी प्रतिबद्धता का प्रतीक है। यह दिन हमें यह याद दिलाता है कि जब भी अन्याय और दमन के खिलाफ खड़ा होने की आवश्यकता होगी, भारत अपने नैतिक और सैन्य शक्ति का परिचय देगा। विजय दिवस हमें गर्व और प्रेरणा देता है कि हम अपनी सेना और देश के प्रति सदैव कृतज्ञ रहें।

 


 

Thursday, December 12, 2024

" देवी अहिल्या बाई होल्कर की जीवनी "



                       देवी अहिल्या बाई होल्कर की जीवनी


अहिल्या बाई होल्कर, भारत के इतिहास में एक आदर्श शासिका, कुशल प्रशासक, और धर्मपरायण महिला के रूप में प्रसिद्ध हैं। उनका जन्म 31 मई 1725 को महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के चौंडी गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम मानकोजी शिंदे था, जो एक साधारण किसान थे। बचपन से ही अहिल्या बाई साधारण, धार्मिक और दयालु स्वभाव की थीं।


प्रारंभिक जीवन


अहिल्या बाई का जीवन शुरुआत में बेहद साधारण था। उनके पिता ने उन्हें पढ़ने-लिखने का अवसर प्रदान किया, जो उस समय लड़कियों के लिए असामान्य था। यह शिक्षा और उनके नैतिक मूल्यों ने उन्हें आगे चलकर एक आदर्श नेता बनने में मदद की। उनका विवाह 1733 में इंदौर के होल्कर राजवंश के उत्तराधिकारी खांडेराव होल्कर से हुआ।


साहसिक जीवन की शुरुआत


अहिल्या बाई का वैवाहिक जीवन लंबा नहीं रहा। 1754 में कुंभेर के युद्ध में उनके पति खांडेराव की मृत्यु हो गई। इस त्रासदी के बाद, जब उन्होंने सती होने का निर्णय लिया, तो उनके ससुर मल्हारराव होल्कर ने उन्हें रोका और राज्य के उत्तरदायित्व संभालने के लिए प्रेरित किया। मल्हारराव ने उन्हें प्रशासनिक कार्यों और सैन्य रणनीतियों की शिक्षा दी।


शासनकाल


1767 में मल्हारराव होल्कर की मृत्यु के बाद, अहिल्या बाई ने इंदौर राज्य का शासन संभाला। उन्होंने अपने शासनकाल को न्याय, धर्म, और विकास के लिए समर्पित किया। उनकी प्रशासनिक नीतियां प्रजावत्सल थीं। वे अपने राज्य की प्रजा को अपनी संतान की तरह मानती थीं और उनकी समस्याओं को सुनने के लिए हर दिन दरबार लगाती थीं।


अहिल्या बाई ने कृषि, व्यापार, और समाज सुधार के क्षेत्रों में कई महत्वपूर्ण कार्य किए। उन्होंने जल प्रबंधन, सिंचाई प्रणाली, और सड़कों का निर्माण कराया, जिससे राज्य की अर्थव्यवस्था मजबूत हुई।


धार्मिक और सांस्कृतिक योगदान


अहिल्या बाई का जीवन धार्मिक आस्था से ओतप्रोत था। उन्होंने अनेक मंदिरों का निर्माण और पुनर्निर्माण कराया। इनमें काशी विश्वनाथ मंदिर (वाराणसी), सोमनाथ मंदिर (गुजरात), और महाकालेश्वर मंदिर (उज्जैन) जैसे महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल शामिल हैं। उनका उद्देश्य केवल धार्मिक स्थलों का निर्माण नहीं था, बल्कि उन स्थलों को समाज के सभी वर्गों के लिए सुलभ बनाना था।


वे जाति-पांति के भेदभाव के विरुद्ध थीं और समाज में समानता स्थापित करने के लिए कार्यरत रहीं। उन्होंने गरीबों, विधवाओं, और अनाथों की मदद के लिए विशेष योजनाएं बनाईं।


सैन्य कौशल


हालांकि अहिल्या बाई को एक शांतिपूर्ण शासक के रूप में जाना जाता है, वे युद्धकला में भी निपुण थीं। उन्होंने अपने राज्य की सीमाओं की सुरक्षा के लिए एक मजबूत सेना का गठन किया और अपने दुश्मनों के खिलाफ कई युद्ध लड़े। उनके साहस और नेतृत्व के कारण होल्कर साम्राज्य एक सुदृढ़ शक्ति बना रहा।


न्यायप्रियता और प्रजावत्सलता


अहिल्या बाई को उनकी न्यायप्रियता के लिए जाना जाता था। वे जनता की समस्याओं को सुनने और उनके समाधान के लिए हमेशा तत्पर रहती थीं। उनके शासनकाल में प्रजा का सुख-समृद्धि सर्वोपरि था। उन्होंने राज्य में कर प्रणाली को भी सुधारने का प्रयास किया, जिससे किसानों और व्यापारियों को राहत मिली।


व्यक्तित्व और जीवन मूल्य


अहिल्या बाई अपने सरल, विनम्र और धर्मपरायण स्वभाव के लिए प्रसिद्ध थीं। वे धन और ऐश्वर्य में रहकर भी साधारण जीवन व्यतीत करती थीं। उन्होंने अपना जीवन जनसेवा, धर्म, और न्याय को समर्पित कर दिया। उनके शासनकाल में राज्य में कभी भी किसी प्रकार का विद्रोह या अशांति नहीं हुई, जो उनके कुशल नेतृत्व का प्रमाण है।


मृत्यु और विरासत


अहिल्या बाई होल्कर का निधन 13 अगस्त 1795 को हुआ। उनकी मृत्यु के बाद भी उनका योगदान और उनकी नीतियां लोगों के दिलों में जीवित रहीं। उन्हें "मालवा की रानी" के रूप में याद किया जाता है। उनकी शासन पद्धति और कार्य आज भी प्रशासन और नेतृत्व के क्षेत्र में एक आदर्श माने जाते हैं।


निष्कर्ष


अहिल्या बाई होल्कर भारतीय इतिहास की उन महान विभूतियों में से एक हैं, जिन्होंने अपने अद्वितीय नेतृत्व, प्रशासनिक कौशल और सामाजिक सेवा के माध्यम से न केवल अपने राज्य को समृद्ध किया, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए एक आदर्श प्रस्तुत किया। उनका जीवन यह संदेश देता है कि सच्चे नेतृत्व का आधार करुणा, न्याय, और सेवा है। उनकी कहानी आज भी प्रेरणा का स्रोत बनी हुई है।


Monday, December 2, 2024

साहसी क्रांतिकारी खुदीराम बोस की जीवनी [ लाइब्रेरी ब्लॉग पोस्ट 03/12/2024]

 खुदीराम बोस की जीवनी


खुदीराम बोस का जन्म 3 दिसंबर 1889 को बंगाल के मिदनापुर जिले के हबीबपुर गांव में हुआ था। वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सबसे युवा और साहसी क्रांतिकारियों में से एक थे। उनके पिता त्रैलोक्यनाथ बोस और माता लक्ष्मीप्रिया देवी साधारण ब्राह्मण परिवार से थे। बचपन में ही उनके माता-पिता का निधन हो गया, जिसके बाद उनकी बहन ने उनका पालन-पोषण किया।


प्रारंभिक जीवन और शिक्षा


खुदीराम बोस का झुकाव बचपन से ही देशभक्ति की ओर था। वे स्कूली शिक्षा के दौरान ही क्रांतिकारी गतिविधियों में रुचि लेने लगे थे। उन्होंने ब्रिटिश शासन के अन्याय और अत्याचार को करीब से देखा, जिससे उनके मन में स्वतंत्रता के प्रति तीव्र इच्छा जाग्रत हुई।


क्रांतिकारी जीवन की शुरुआत


खुदीराम बोस मात्र 15 वर्ष की आयु में स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हो गए। उन्होंने अनुशीलन समिति नामक क्रांतिकारी संगठन की सदस्यता ली। उनका उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह करना था। खुदीराम ने अंग्रेजों के खिलाफ पर्चे बांटे और जनजागरण में भाग लिया।


1908 में, खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी ने अंग्रेज मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड की हत्या की योजना बनाई। किंग्सफोर्ड अपने कठोर और अन्यायपूर्ण फैसलों के लिए कुख्यात था। उन्होंने 30 अप्रैल 1908 को मुजफ्फरपुर में किंग्सफोर्ड की गाड़ी पर बम फेंका, लेकिन गाड़ी में किंग्सफोर्ड के बजाय दो अन्य ब्रिटिश महिलाएं थीं, जो हादसे में मारी गईं।


गिरफ्तारी और शहादत


घटना के बाद खुदीराम और प्रफुल्ल भाग गए। हालांकि, प्रफुल्ल ने गिरफ्तारी से बचने के लिए खुद को गोली मार ली। खुदीराम को कुछ दिनों बाद वानी रेलवे स्टेशन पर गिरफ्तार कर लिया गया। उनकी उम्र उस समय केवल 18 वर्ष थी।


खुदीराम पर हत्या का मुकदमा चलाया गया। उन्होंने अदालत में अपना अपराध स्वीकार किया और इसे अपने देश के प्रति कर्तव्य बताया। 11 अगस्त 1908 को उन्हें फांसी की सजा दी गई। उनकी शहादत के समय वे मात्र 18 वर्ष, 8 महीने और 8 दिन के थे।


विरासत


खुदीराम बोस की शहादत ने पूरे देश को झकझोर दिया और युवाओं में स्वतंत्रता के प्रति अदम्य जोश भरा। उन्हें भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का प्रतीक माना जाता है। उनकी वीरता और त्याग आज भी प्रेरणादायक है।


खुदीराम बोस का नाम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के स्वर्णिम पन्नों में अमर है। उनका बलिदान न केवल युवाओं को प्रेरित करता है, बल्कि स्वतंत्रता की कीमत और इसके लिए किए गए संघर्ष को भी याद दिलाता है।

Wednesday, November 20, 2024

LIBRARY WEEK, DAY 07, Date (20/11/24), POST

 छत्तीसगढ़ में अनेक प्रमुख अभ्यारण्य और राष्ट्रीय उद्यान हैं, जो जैव विविधता और प्राकृतिक सौंदर्य के लिए प्रसिद्ध हैं। इनमें से प्रमुख अभ्यारण्य निम्नलिखित हैं:

1. अचानकमार अभ्यारण्य (बिलासपुर)

यह एक बाघ संरक्षण क्षेत्र है और सतपुड़ा की पहाड़ियों में स्थित है।

2. उदंती सीतानदी टाइगर रिजर्व (गरियाबंद)

यह विशेष रूप से दुर्लभ जंगली भैंस (वन्य भैंसा) के लिए प्रसिद्ध है।

3. बारनवापारा अभ्यारण्य (महासमुंद)

इस अभ्यारण्य में चीतल, सांभर, और तेंदुआ जैसे जीव पाए जाते हैं।

4. गुरु घासीदास (संजय) राष्ट्रीय उद्यान (कोरिया)

यह मध्य प्रदेश की सीमा पर स्थित है और बाघों के लिए जाना जाता है।

5. भोरमदेव अभ्यारण्य (कवर्धा)

इसे "छत्तीसगढ़ का खजुराहो" भी कहा जाता है और यह समृद्ध वनस्पति के लिए प्रसिद्ध है।

6. सिहावा अभ्यारण्य (धमतरी)

यह अद्भुत प्राकृतिक सौंदर्य और जल स्रोतों के लिए जाना जाता है।

7. तमोर पिंगला अभ्यारण्य (सरगुजा)

यहाँ विविध प्रकार की वनस्पतियाँ और जीव जंतु पाए जाते हैं।

8. सेमरसोत अभ्यारण्य (सरगुजा)

यह क्षेत्र हाथी और अन्य वन्य जीवों के लिए जाना जाता है।

छत्तीसगढ़ के ये अभ्यारण्य राज्य की जैव विविधता को संरक्षित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं​​​​।


Tuesday, November 19, 2024

LIBRARY WEEK, DAY 06, Date (19/11/24) POST

 



तिजन बाई की जीवनी

तिजन बाई छत्तीसगढ़ की प्रसिद्ध लोककला पंडवानी की गायिका हैं, जिन्होंने अपनी कला को विश्वभर में पहचान दिलाई। उनका जन्म 24 अप्रैल 1956 को भिलाई के गनियारी गाँव में हुआ। एक गरीब परिवार में जन्मी तिजन बाई को महाभारत की कहानियों में बचपन से रुचि थी। उनके नाना, ब्रजलाल कोसरिया, ने उन्हें पंडवानी कला से परिचित कराया।


पंडवानी में महाभारत की कहानियों को संगीत और अभिनय के साथ प्रस्तुत किया जाता है। उस समय इस कला में महिलाओं का शामिल होना असामान्य था, लेकिन तिजन बाई ने समाज के विरोधों के बावजूद इसे अपनाया। उन्होंने "कपिला शैली" में खड़े होकर गायन करना शुरू किया और 13 वर्ष की उम्र में पहला सार्वजनिक प्रदर्शन किया।


तिजन बाई की सशक्त आवाज़, गहराई और अभिनय ने उन्हें राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई। उन्होंने कई देशों में अपनी प्रस्तुति दी। उन्हें पद्मश्री (1988), पद्मभूषण (2003), और पद्मविभूषण (2019) सहित कई प्रतिष्ठित पुरस्कार मिले।


तिजन बाई का जीवन संघर्ष, साहस, और सफलता की मिसाल है। उन्होंने पंडवानी को नई ऊँचाई दी और छत्तीसगढ़ की लोकसंस्कृति को वैश्विक मंच पर पहुँचाया।

Monday, November 18, 2024

LIBRARY WEEK, DAY 05, Date (18/11/24) POST

 छत्तीसगढ़ के पाँच प्रसिद्ध पद्मश्री सम्मान प्राप्तकर्ताओं के नाम, उनके योगदान और पुरस्कार प्राप्त करने का वर्ष निम्नलिखित हैं:

1. दुर्गा प्रसाद चौधरी (1973)

योगदान: छत्तीसगढ़ी लोकसंगीत और कला में अद्वितीय योगदान।

दुर्गा प्रसाद चौधरी ने छत्तीसगढ़ी लोकसंगीत को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई।

2. तेजकुमार सिंह (2016)

योगदान: लोकनृत्य और छत्तीसगढ़ी संस्कृति का संरक्षण।

इन्होंने पंथी नृत्य और सतनाम संस्कृति के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

3. मोहम्मद शरीफ (2020)

योगदान: सामाजिक कार्य।

इन्होंने हजारों अनजान और लावारिस शवों का अंतिम संस्कार कर मानवीय सेवा का अनूठा उदाहरण पेश किया।

4. जितेंद्र हरीशचंद्र राठौर (2021)

योगदान: जैविक खेती और पर्यावरण संरक्षण।

इन्होंने छत्तीसगढ़ में जैविक खेती को बढ़ावा देकर किसानों को नई दिशा दी।

5. डॉ. सुभाष मोहंती (2022)

योगदान: चिकित्सा और अनुसंधान।

डॉ. मोहंती ने सिकल सेल एनीमिया के इलाज और जागरूकता के लिए उल्लेखनीय काम किया।

ये सभी सम्मानित व्यक्ति छत्तीसगढ़ के गौरव हैं और उनके योगदान ने राज्य को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई।


Sunday, November 17, 2024

LIBRARY WEEK, DAY 04, Date (17/11/24) POST

 यहाँ छत्तीसगढ़ की पाँच महान हस्तियों की जीवनी का संक्षिप्त विवरण दिया गया है:

1. पंडित रविशंकर शुक्ल

  • परिचय: पंडित रविशंकर शुक्ल छत्तीसगढ़ के पहले मुख्यमंत्री थे और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख नेता।
  • जन्म: 2 अगस्त 1877, सागर, मध्य प्रदेश।
  • योगदान: स्वतंत्रता संग्राम में उनकी भूमिका, शिक्षण क्षेत्र में सुधार, और छत्तीसगढ़ के विकास के लिए उनके प्रयास।
  • महत्व: रायपुर विश्वविद्यालय (अब पंडित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय) उनके नाम पर स्थापित है।

2. मिनिमाता

  • परिचय: मिनिमाता भारत की पहली महिला सांसदों में से एक और सामाजिक सुधारक थीं।
  • जन्म: 1913, असम।
  • योगदान: समाज में महिलाओं और दलितों के उत्थान के लिए काम किया।
  • महत्व: छत्तीसगढ़ में मिनिमाता के नाम पर अनेक योजनाएं और संस्थान स्थापित हैं।

3. स्वामी विवेकानंद

  • परिचय: स्वामी विवेकानंद का छत्तीसगढ़ के रायपुर में बचपन बीता। वे महान संत और भारतीय संस्कृति के प्रचारक थे।
  • जन्म: 12 जनवरी 1863, कोलकाता।
  • योगदान: भारतीय संस्कृति को विश्व स्तर पर पहचान दिलाने में अहम भूमिका।
  • महत्व: रायपुर में स्वामी विवेकानंद के नाम पर हवाई अड्डा और स्मारक हैं।

4. पंडित सुंदरलाल शर्मा

  • परिचय: छत्तीसगढ़ के गांधी के रूप में प्रसिद्ध, पंडित सुंदरलाल शर्मा स्वतंत्रता संग्राम और समाज सुधार में अग्रणी थे।
  • जन्म: 21 दिसंबर 1881, राजिम।
  • योगदान: अस्पृश्यता और सामाजिक भेदभाव के खिलाफ संघर्ष किया।
  • महत्व: उनके नाम पर छत्तीसगढ़ में विश्वविद्यालय और अन्य संस्थान हैं।

5. हबीब तनवीर

  • परिचय: हबीब तनवीर छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध नाट्यकार और निर्देशक थे।
  • जन्म: 1 सितंबर 1923, रायपुर।
  • योगदान: छत्तीसगढ़ी संस्कृति और लोकनाट्य को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर पहचान दिलाई।
  • महत्व: "चरनदास चोर" उनकी प्रसिद्ध नाट्य कृति है।

Saturday, November 16, 2024

LIBRARY WEEK, DAY 03, Date (16/11/24) POST


छत्तीसगढ़ राज्य में कथक नृत्य में रायगढ़ राजघराने का योगदान

छत्तीसगढ़ का रायगढ़ राजघराना भारतीय शास्त्रीय नृत्य और संगीत के क्षेत्र में अपनी अनूठी पहचान रखता है। विशेष रूप से कथक नृत्य के विकास और संरक्षण में रायगढ़ राजघराने का योगदान अद्वितीय और अविस्मरणीय है। इस राजघराने ने छत्तीसगढ़ को सांस्कृतिक और कलात्मक रूप से समृद्ध बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

कथक नृत्य और रायगढ़ राजघराना

कथक नृत्य उत्तर भारत की एक प्रमुख शास्त्रीय नृत्य शैली है, जिसमें नृत्य, भाव, और कथावाचन का अद्भुत समन्वय देखने को मिलता है। रायगढ़ राजघराने ने इस नृत्य शैली को न केवल संरक्षण दिया, बल्कि इसे प्रोत्साहित कर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई।

रायगढ़ राजघराने के प्रमुख योगदान

  1. नृत्य और संगीत का संरक्षण:
    रायगढ़ राजघराने के महाराजा चक्रधर सिंह (1905–1947) का योगदान कथक नृत्य के क्षेत्र में सबसे उल्लेखनीय है। उन्होंने न केवल कथक को संरक्षित किया, बल्कि इसे नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया। महाराजा चक्रधर सिंह स्वयं एक कुशल कथक नर्तक, संगीतज्ञ, और विद्वान थे। उन्होंने कथक नृत्य के साथ-साथ तबला, पखावज, और संगीत में भी अपना योगदान दिया।

  2. नई संरचनाओं का विकास:
    महाराजा चक्रधर सिंह ने कथक नृत्य में नई संरचनाओं और बंदिशों को जोड़ा। उन्होंने कथक में तबले और पखावज के तालों के प्रयोग को और समृद्ध किया, जिससे यह नृत्य शैली और अधिक प्रभावशाली बनी।

  3. कथक गुरु और कलाकारों का समर्थन:
    रायगढ़ राजघराने ने देश भर के प्रमुख कथक गुरुओं और कलाकारों को संरक्षण दिया। राजघराने के सहयोग से कथक नृत्य का अध्ययन और अभ्यास करने के लिए देशभर से कई कलाकार रायगढ़ आए।

  4. संगीत और नृत्य की शिक्षा:
    महाराजा चक्रधर सिंह ने रायगढ़ में संगीत और नृत्य की शिक्षा को बढ़ावा दिया। उनके प्रयासों से रायगढ़ संगीत घराना अस्तित्व में आया, जो आज भी अपनी परंपरा और समृद्धि के लिए प्रसिद्ध है।

  5. चक्रधर सम्मान:
    रायगढ़ राजघराने की संस्कृति और कला के प्रति प्रतिबद्धता को सम्मानित करने के लिए छत्तीसगढ़ सरकार ने "चक्रधर सम्मान" की स्थापना की। यह पुरस्कार भारतीय शास्त्रीय संगीत और नृत्य में उत्कृष्ट योगदान देने वाले कलाकारों को प्रदान किया जाता है।

अंतरराष्ट्रीय पहचान

रायगढ़ राजघराने ने कथक नृत्य को अंतरराष्ट्रीय मंच पर भी प्रस्तुत किया। उनके प्रयासों से इस नृत्य शैली को न केवल भारत में, बल्कि विदेशों में भी ख्याति मिली।

निष्कर्ष

रायगढ़ राजघराने का योगदान कथक नृत्य के क्षेत्र में अत्यधिक महत्वपूर्ण है। उन्होंने इस कला को संरक्षित किया, इसे नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया और इसे भावी पीढ़ियों तक पहुंचाने का प्रयास किया। रायगढ़ राजघराना आज भी छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक धरोहर के प्रतीक के रूप में जाना जाता है।



Friday, November 15, 2024

LIBRARY WEEK, DAY 02, (15/11/24) POST

भगवान बिरसा मुंडा: एक संक्षिप्त जीवन परिचय

भगवान बिरसा मुंडा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महानायक और जनजातीय समुदाय के प्रेरणास्रोत थे। उनका जन्म 15 नवंबर 1875 को झारखंड के छोटा नागपुर क्षेत्र में उलीहातू गाँव में हुआ था। वे मुंडा जनजाति से संबंधित थे, जो झारखंड और उसके आसपास के क्षेत्रों में निवास करती है। बिरसा मुंडा ने अपने छोटे से जीवन में आदिवासी समाज के उत्थान और ब्रिटिश साम्राज्य के शोषण के खिलाफ आंदोलन छेड़कर इतिहास में अपनी अमिट छाप छोड़ी।

प्रारंभिक जीवन

बिरसा का बचपन गरीबी और संघर्षों से भरा था। उनके माता-पिता, सुगना मुंडा और करमी हातू, कृषि और पशुपालन के माध्यम से अपनी जीविका चलाते थे। बचपन में बिरसा ने पारंपरिक आदिवासी जीवन और संस्कृति को निकटता से देखा। उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा सलगा गाँव के एक स्थानीय स्कूल में प्राप्त की और बाद में चाईबासा में पढ़ाई की।

सामाजिक और धार्मिक सुधारक

बिरसा मुंडा न केवल एक क्रांतिकारी नेता थे, बल्कि सामाजिक और धार्मिक सुधारक भी थे। उन्होंने आदिवासी समाज में फैली कुरीतियों, अंधविश्वासों, और बाहरी प्रभावों के खिलाफ आवाज उठाई। उन्होंने जनजातीय समाज को उनके पारंपरिक मूल्यों और संस्कृति की ओर लौटने के लिए प्रेरित किया। बिरसा ने "बिरसाइत" नामक एक धार्मिक आंदोलन की स्थापना की, जिसका उद्देश्य आदिवासी समाज को स्वाभिमान और आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ाना था।

ब्रिटिश शासन के खिलाफ संघर्ष

बिरसा मुंडा ने अंग्रेजों के अत्याचार, भूमि छीनने की नीतियों, और वन अधिकारों के उल्लंघन के खिलाफ "उलगुलान" (महान विद्रोह) का नेतृत्व किया। उन्होंने आदिवासियों को संगठित किया और ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ एक सशस्त्र आंदोलन छेड़ा। उनका मानना था कि आदिवासी भूमि पर सिर्फ आदिवासियों का अधिकार है और बाहरी ताकतों को इसे हड़पने का कोई हक नहीं।

उलगुलान आंदोलन

1899-1900 के दौरान बिरसा के नेतृत्व में "उलगुलान" आंदोलन ने ब्रिटिश हुकूमत को हिला कर रख दिया। उन्होंने आदिवासियों को अपने अधिकारों के लिए लड़ने के लिए प्रेरित किया और उन्हें आत्मसम्मान का महत्व समझाया। इस आंदोलन ने ब्रिटिश सरकार को आदिवासी भूमि अधिनियम जैसे कानून बनाने के लिए मजबूर किया।

मृत्यु

बिरसा मुंडा का जीवन बहुत छोटा था। उन्हें 1900 में गिरफ्तार कर लिया गया और 9 जून 1900 को रांची की जेल में उनकी मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु के कारणों पर आज भी सवाल उठाए जाते हैं।

विरासत और सम्मान

बिरसा मुंडा का जीवन आज भी आदिवासी समुदाय और पूरे देश के लिए प्रेरणा का स्रोत है। झारखंड राज्य की स्थापना के साथ ही उनके जन्मदिन, 15 नवंबर, को "झारखंड स्थापना दिवस" के रूप में मनाया जाता है। उन्हें "धरती आबा" यानी "धरती पिता" के नाम से भी जाना जाता है।

निष्कर्ष

भगवान बिरसा मुंडा ने अपने अदम्य साहस, नेतृत्व और बलिदान से न केवल आदिवासी समाज, बल्कि पूरे भारत को गर्व करने का अवसर दिया। उनका जीवन संघर्ष, स्वाभिमान और आत्मनिर्भरता का प्रतीक है, जो आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करता रहेगा।






Thursday, November 14, 2024

LIBRARY WEEK, DAY 01, (14/11/2024) POST

झलकारी बाई: एक साहसी वीरांगना

झलकारी बाई भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की एक अद्वितीय योद्धा थीं, जिनका नाम साहस, समर्पण और नारी शक्ति का प्रतीक है। वे रानी लक्ष्मीबाई की महिला सेना, "दुर्गा दल," की प्रमुख सदस्य थीं और उन्होंने झाँसी की रक्षा के लिए अंग्रेजों के खिलाफ वीरतापूर्ण संघर्ष किया।

प्रारंभिक जीवन

झलकारी बाई का जन्म 22 नवंबर 1830 को उत्तर प्रदेश के झाँसी के समीप भोजला गाँव में एक निर्धन but स्वाभिमानी कोली परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम सदोवर सिंह और माता का नाम जमुना देवी था। बचपन से ही झलकारी बाई में अद्भुत साहस और वीरता थी। वे घुड़सवारी, तलवारबाजी, और निशानेबाजी में निपुण थीं। उनकी इन क्षमताओं ने उन्हें बचपन से ही अन्य महिलाओं से अलग बनाया।

रानी लक्ष्मीबाई की सेना में भूमिका

झलकारी बाई की रानी लक्ष्मीबाई से पहली मुलाकात उनके विवाह के बाद हुई। उनकी बहादुरी और युद्ध कौशल से प्रभावित होकर रानी लक्ष्मीबाई ने उन्हें अपनी महिला सेना "दुर्गा दल" में एक प्रमुख स्थान दिया। झलकारी बाई और रानी लक्ष्मीबाई के चेहरे की अद्भुत समानता ने युद्ध के दौरान एक महत्वपूर्ण रणनीति के रूप में काम किया।

1857 का विद्रोह और झाँसी का संघर्ष

1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान झाँसी पर अंग्रेजों ने आक्रमण किया। इस कठिन समय में झलकारी बाई ने रानी लक्ष्मीबाई का भरपूर साथ दिया। जब अंग्रेज किला जीतने के करीब थे, तब झलकारी बाई ने रानी लक्ष्मीबाई की जगह ली और दुश्मन का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। उन्होंने स्वयं को रानी लक्ष्मीबाई के रूप में प्रस्तुत कर दुश्मन सेना को भ्रमित कर दिया। इस साहसी कदम ने रानी लक्ष्मीबाई को सुरक्षित निकलने का समय दिया।

झलकारी बाई का बलिदान

झलकारी बाई ने झाँसी की स्वतंत्रता के लिए अंत तक संघर्ष किया। उन्होंने अपने प्राणों की आहुति देकर यह साबित कर दिया कि नारी शक्ति किसी भी कठिन परिस्थिति का सामना करने में सक्षम है। उनके बलिदान ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा दी और महिलाओं के अदम्य साहस को उजागर किया।

विरासत और सम्मान

झलकारी बाई को भारतीय इतिहास में उनकी वीरता और बलिदान के लिए हमेशा याद किया जाता है। झाँसी में उनकी स्मृति में एक स्मारक बनाया गया है। उनकी जयंती पर विभिन्न आयोजन होते हैं, जो उनकी वीरता और नारी सशक्तिकरण को प्रेरित करते हैं।

निष्कर्ष

झलकारी बाई केवल एक योद्धा ही नहीं, बल्कि नारी शक्ति का प्रतीक थीं। उनका जीवन हमें साहस, त्याग और देशभक्ति का संदेश देता है। उनके योगदान को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा गया है। झलकारी बाई जैसी वीरांगनाएँ हमें यह सिखाती हैं कि अपने अधिकारों और देश की रक्षा के लिए हमें किसी भी कठिनाई का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए।




 

LIBRARY WEEK NOVEMBER 14-21 ,2024

 


छत्तीसगढ़ राज्य की रजत जयंती : 25 वर्षों की गौरव यात्रा

  छत्तीसगढ़ राज्य की रजत जयंती : 25 वर्षों की गौरव यात्रा छत्तीसगढ़ भारत का 26वाँ राज्य है, जिसका गठन 1 नवम्बर 2000 को हुआ। “धान का कटोरा” क...